Last Updated on July 27, 2025 17:02, PM by
भारत के सबसे प्रतिष्ठित पारंपरिक शिल्प यानि ट्रेडिशनल क्राफ्ट में से एक कोल्हापुरी चप्पल न केवल घरेलू फैशन जगत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी नए सिरे से लोकप्रिय हो रही है। अपनी जटिल कारीगरी और सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध इस प्रोडक्ट को अब QR कोड के साथ बेचा जाएगा ताकि नकली प्रोडक्ट्स पर रोक लगाई जा सके। कोल्हापुरी चप्पल को भौगोलिक संकेतक यानि GI (Geographical Indication) टैग मिला हुआ है। GI टैग ऐसे प्रोडक्ट्स को मिलता है, जो ओरिजिनली किसी खास जगह या चुनिंदा जगहों पर भी बनते हैं और उस जगह की पहचान होते हैं।
न्यूज एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, QR कोड वाले फैसले पर महाराष्ट्र के चमड़ा उद्योग विकास निगम (लिडकॉम) के अधिकारियों ने बताया कि इस कदम का उद्देश्य नकली कोल्हापुरी चप्पल की बिक्री पर रोक लगाना, प्रत्येक प्रोडक्ट के पीछे कारीगर की पहचान को दर्शाना, उपभोक्ताओं का भरोसा बढ़ाना और पारंपरिक कारीगरों की बाजार में स्थिति को मजबूत करना है।
लिडकॉम ने बयान में कहा कि चप्पल की हर जोड़ी के लिए QR-कोड वाला ऑथेंटिकेशन शुरू किया गया है। कोड स्कैन करके खरीदार, कारीगर या प्रोडक्शन यूनिट का नाम और स्थान, महाराष्ट्र में निर्माण के जिले, शिल्प तकनीक, इस्तेमाल हुए कच्चे माल, GI सर्टिफिकेशन की वैधता और स्टेटस जैसी जानकारी हासिल कर सकते हैं।
हाल ही में Prada ने की थी कोल्हापुरी चप्पल की नकल, नहीं दिया था क्रेडिट
हाल ही में इटली के नामी फैशन हाउस प्राडा ने मिलान में 23 जून को मेन्स 2026 फैशन शो में कोल्हापुरी चप्पलों से मिलते-जुलते सैंडल पेश किए। कंपनी ने इन्हें अपने स्प्रिंग-समर 2026 कलेक्शन के हिस्से के रूप में पेश किया। अपने शो नोट्स में प्राडा ने इन फुटवियर को “लेदर सैंडल्स” करार दिया और इसके भारत से कनेक्शन का कोई जिक्र नहीं किया। इसके बाद भारत के फैशन समुदाय के कई लोगों ने प्राडा को आड़े हाथों ले लिया। पश्चिमी महाराष्ट्र में कोल्हापुरी चप्पल के पारंपरिक निर्माता भी नाराज हो गए और प्राडा की काफी फजीहत भी हुई।
इसके बाद फैशन हाउस ने माना कि उसका कलेक्शन भारत के हैंडक्राफ्टेड फुटवियर से प्रेरित है। लेकिन यह भी कहा कि अभी कलेक्शन डिजाइन के शुरुआती चरण में है। इसके डेवलप होने, किसी भी पीस के उत्पादन या कमर्शियलाइजेशन की पुष्टि नहीं की गई है। इसके बाद प्राडा के विशेषज्ञों की एक टीम जुलाई महीने की शुरुआत में कोल्हापुरी चप्पल के कारीगरों से बातचीत करने और इसे बनाने की प्रोसेस को समझने के लिए कोल्हापुर आई थी।
12वीं शताब्दी से है कोल्हापुरी चप्पल की विरासत
12वीं शताब्दी से चली आ रही यह चप्पल मुख्य रूप से महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सांगली और सोलापुर जिलों में तैयार की जाती रही है। प्राकृतिक रूप से टैन किए गए चमड़े और हाथ से बुनी हुई पट्टियों से बने इनके विशिष्ट डिजाइन को कारीगरों की पीढ़ियों ने संभाल कर रखा हुआ है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में इसे एक बड़ा बढ़ावा मिला था, जब छत्रपति शाहू जी महाराज ने इसे आत्मनिर्भरता और स्वदेशी गौरव के प्रतीक के रूप में प्रचारित किया।
उन्होंने इन चप्पलों के इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया, जिससे ग्रामीण शिल्प को एक सम्मानित कुटीर उद्योग के रूप में विकसित करने में मदद मिली। इस सांस्कृतिक विरासत की रक्षा और कारीगरों को उचित मान्यता सुनिश्चित करने के लिए, महाराष्ट्र और कर्नाटक सरकारों ने संयुक्त रूप से 2019 में कोल्हापुरी चप्पल के लिए GI टैग हासिल किया।
